ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले को कौन नहीं जानता? (11 April)

ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले को कौन नहीं जानता? (11 April)
लेकिन क्या आप जानते हैं कि सावित्रीबाई को स्कूल भेजने वाला पहला इंसान ज्योतिबा ही थे?
इस पहल से ऊंची जाति के लोगों में तूफान सा आ गया। लोगों ने उनके घर पर पत्थर फेंके, गंदगी फेंकी, सावित्रीबाई को रास्ते में गालियाँ दीं।

उन्होंने 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। इस स्कूल में दलित और पिछड़ी जातियों की लड़कियों को भी पढ़ाया जाता था।
इस विवाद से खुद ज्योतिबा को उनके पिता ने घर से निकाल दिया। कारण? वो “जाति और धर्म के खिलाफ” काम कर रहे थे। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। यानी के आज के ही दिन ११ अप्रैल को उनका जन्मदिवस है। वह एक माली जाति से थे — जिसे उस समय की ब्राह्मणवादी व्यवस्था में नीचा और अपवित्र माना जाता था।
जब उन्होंने शिक्षा प्राप्त की, तो वह उस समय की सामाजिक असमानताओं को करीब से समझ पाए। एक दिन जब वह एक ब्राह्मण मित्र की शादी में शामिल हुए, तो वहां के पुरोहितों ने उन्हें मंच से नीचे उतार दिया, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह “शूद्र” थे।
यह घटना उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बन गई। उसी दौरानज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवाद पर खुला हमला बोला। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणों ने समाज को जानबूझकर जातियों में बांटा ताकि वे खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा साबित कर सकें। उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों की सत्ता को “धोखेबाज़” और “मानवता विरोधी” बताया — जिससे महाराष्ट्र के ऊंची जाति के लोगों में गुस्सा भड़क उठा।
उन्हें “धर्मद्रोही”, “विद्रोही” और यहां तक कि “पागल” तक कहा गया।
ज्योतिबा फुले सिर्फ विचारों के सुधारक नहीं थे, वो लेखनी से भी क्रांति लाए। 1869 में उन्होंने एक नाटक लिखा — “तृतीय रत्न”। इस नाटक में उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों की चालाकियों, अंधविश्वासों और शोषण को उजागर किया।
इस नाटक में एक पात्र कहता है:

“पंडितों ने शास्त्रों का जाल बुना है, ताकि हम जैसे लोग कभी सवाल ही न पूछ सकें।”
नाटक छपते ही पुणे के कई ब्राह्मण संगठनों ने इसकी निंदा की।
कई जगहों पर इस नाटक पर पाबंदी लगाने की कोशिश की गई।
ब्राह्मण वर्ग ने इसे “हिंदू धर्म पर हमला” करार दिया।
इसके बाद उन्होंने 1873 में “गुलामगिरी” नामक पुस्तक लिखी — जिसमें उन्होंने भारतीय समाज की तुलना अमेरिकी गुलामी से की।
उन्होंने लिखा कि शूद्र और अतिशूद्र भारत में गुलाम हैं — और उनकी गुलामी ब्राह्मणों ने बनाई है। यह कहना उस समय बम फोड़ने जैसा था।
ब्राह्मण समाज में इसका तीखा विरोध हुआ। कुछ ने तो यह तक कह दिया कि ज्योतिबा फुले अंग्रेजों के एजेंट हैं।
ज्योतिबा फुले ने न सिर्फ जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी लड़ाई लड़ी। वो विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में थे — और उन्होंने ऐसे कई विवाह करवाए। धार्मिक ठेकेदारों ने इसे “धर्म भ्रष्ट” करार दिया। पुणे के कई हिस्सों में उनके पुतले जलाए गए। उन्हें सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा। पर वे अपने विचारो पर अडिग रहे।

1873 में ज्योतिबा फुले ने “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की।
इस समाज का मकसद था — जातिवाद, अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ लड़ना। मगर इस समाज ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को सीधी चुनौती दी।
उन्होंने शादी, नामकरण और अंतिम संस्कार जैसे संस्कारों को ब्राह्मणों के बिना संपन्न कराना शुरू किया। ब्राह्मण वर्ग ने इसे “धार्मिक अपवित्रता” करार दिया।
कई स्थानों पर सत्यशोधक समाज के सदस्यों पर हमले हुए।
लेकिन यह आंदोलन इतना मजबूत था कि महाराष्ट्र के कई हिस्सों में फैल गया। और साथ ही ज्योतिबा फुले डटे रहे – क्योंकि उनका धर्म का एक ही मान्यता था और वो था “समानता”।
28 नवंबर 1890 को ज्योतिबा फुले का निधन हो गया। लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं — और उतने ही विवादास्पद भी। आज भी कई जगहों पर उनके लेखों को स्कूलों के पाठ्यक्रम से हटाने की मांग होती है। कई विचारक उन्हें महान समाज सुधारक मानते हैं, तो कुछ उन्हें “धर्म विरोधी” करार देते हैं।
ज्योतिबा फुले का जीवन एक मिशन था — समानता, शिक्षा और इंसाफ के लिए। उन्होंने समाज की जड़ें हिला दीं — और यही बात उन्हें विवादों के केंद्र में ले आई। आज उनके जन्मदिवस के शुभ अवसर पर हम उन्हें याद करते है।
धन्यवाद